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जुलाई 04, 2021
फूल चले जाते हैं, काँटे सदा सताते हैं
जून 25, 2021
बुझने से पहले ज्वाला भड़के
सूरज की अलौकिक राहों में,
अंतिम डग से थोड़ा पहले,
जब पग-पग बढ़ता राही भी,
तरु छाया में थोड़ा ठहरे,
ऊष्मा की चुभन सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
दीपक के लघुतम जीवन में,
अंधियारे से थोड़ा पहले,
जब अंतिम चंद बूँदों से,
बाती के रेशे होते सुनहरे,
ज्योति की जगमग सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
ऋतुओं के निरंतर फेरे में,
बसंती बयारों के पहले,
कोहरे के घने कंबल में,
जब दिन में भी दिनकर ना दीखे,
शिशिर की शीतलता सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
किसी मृदु-मनोहारी मंचन में,
पटाक्षेप से थोड़ा पहले,
जब उन्मुक्त निमग्न रंगकर्मी,
रहस्य की परतों को खोले,
दर्शक का रोमांच सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
गंतव्यपथ पर चलते-चलते,
शिखर छूने से थोड़ा पहले,
ध्येय को तलाशती राहों पर,
जब दृढ़-संकल्प भी डोले,
राह की जटिलता सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
जीवन की अनूठी यात्रा के,
समापन से थोड़ा पहले,
जब तन से रूह का बंधन भी,
झीनी सी डोरी से ही झूले,
जीने की चाह सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के ||
जून 02, 2021
क्षणभंगुर प्रत्येक तमाशा है
जब नभ पर बहता बादल भी,
बरखा बनकर ढह जाता है,
जब दिनभर जलता दिनकर भी,
संध्या होते ढल जाता है,
जब विध्वंसक सैलाब भी,
साहिल तक फिर थम जाता है,
जब दीनहीन कोई रंक भी,
श्रम से राजा बन जाता है,
जब निर्बल नश्वर हर इक जीव,
कालान्तर में मर जाता है |
तो चहुँ ओर तम को पाकर,
तू व्यर्थ क्यों घबराता है ?
और सुख-समृद्धि से तर हो,
दंभी कैसे बन जाता है?
अपने प्रियजन को खोकर,
शोकाकुल क्यों हो जाता है?
सतत अटूट सत्य परिवर्तन,
स्थिरता सिर्फ़ छलावा है,
चिरकालीन यहाँ कुछ भी नहीं,
क्षणभंगुर प्रत्येक तमाशा है ||
अप्रैल 22, 2021
पृथ्वी दिवस
सृष्टि के सुंदर स्वरूप को संकटग्रस्त तू ना कर,
सृष्टि से ही तू है मानव, सृष्टि की रक्षा कर ||
मार्च 11, 2021
क्या देखूँ मैं ?
रिमझिम बरखा के मौसम में,
घोर-घने-गहरे कानन में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
रंगों की कान्ति से उज्जवल,
सरिता की धारा सा अविरल,
डैनों के नर्तन, की संगी
दो भद्दी फूहड़ टहनियाँ !
लहराते पंखों की शोभा,
या बेढब पैरों की डगमग,
क्या देखूँ मैं ?
माटी के विराट गोले पर,
माया की अद्भुत क्रीड़ा में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
बहती बयार की भांति
जीवनधारा, के हमराही
सुख के लम्हों, का साथी
किंचित कष्टों का रेला है !
हर्षित मानव का चेहरा,
या पीड़ित पुरुष अकेला,
क्या देखूँ मैं ?
पल दो पल की इन राहों में,
वैद्यों के विकसित आलय में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इत गुंजित होती किलकारी,
अंचल में नटखट अवतारी,
उत शोकाकुल क्रन्दनकारी,
बिछोह के गम से मन भारी !
उत्पत्ति का उन्मुक्त उत्सव,
या विलुप्ति का व्याकुल वास्तव,
क्या देखूँ मैं ?
जनमानस के इस जमघट में,
द्वैत के इस द्वंद्व में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इस ओर करुणा का सागर,
दीनों के कष्टों के तारक,
उस ओर पापों की गागर,
स्वर्णिम मृग रुपी अपकारक !
उपकारी सत के साधक,
या जग में तम के वाहक,
क्या देखूँ मैं ?
मेरे अंत:करण के भीतर,
चित्त की गहराइयों के अंदर,
मन के नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इक सुगंधित मनोहर फुलवारी,
कंटक से डाली है भारी,
काँटों से विचलित ना होकर,
गुल पर जाऊं मैं बलिहारी !
पवन के झोकों में रहकर,
भी निर्भीक जलते दीपक,
को देखूँ मैं !
दिसंबर 13, 2020
काश मैं पंछी होता
काश मैं पंछी होता,
सुबह-सवेरे नित दिन उठता,
अन्न-फ़ल-दाना-कण चुगता,
खुले गगन में स्वच्छंद फिरता,
दरख्तों की टहनियों पर विचरता,
तिनकों से अपना घर बुनता,
हरी हरी आँचल में बसता |
काश मैं पंछी होता,
सरहद की न बंदिश होती,
आपस में न रंजिश होती,
व्यर्थ की चिंता ना करता,
कंचन के पीछे ना पड़ता,
भूत का ना बोझ ढोता,
कल के कष्टों से कल लड़ता |
काश मैं पंछी होता,
प्रकृति का मैं अंग होता,
उसके नियमों संग होता,
वृक्षों पर जीवन बसाता,
जीवों की हानि ना करता,
पृथ्वी को पावन मैं रखता,
निष्कलंक निष्पाप मैं रहता ||
दिसंबर 06, 2020
जीवनचक्र
मिट्टी के मानव के घर में,
किलकारी भरता जीवन है,
मिट्टी के मानव के घर में,
शोकाकुल मृत्यु क्रन्दन है |
बसंती बाग़-बगीचों में,
पुलकित पुष्पों का जमघट है,
पतझड़ की उस फुलवारी में,
सूखे पत्तों का दर्शन है |
ऊँचे तरुवर के फल का,
नीचे गिरना निश्चित है,
उतार-चढ़ाव जीत-हार जग के,
सौंदर्य के आभूषण हैं |
माया की क्रीड़ा तो देखो,
स्थिर स्थूल केवल परिवर्तन है,
दुःख की रैन के बाद ही,
सुख के दिनकर का वंदन है ||
नवंबर 23, 2020
कविता क्या है ?
दिनकर के वंदन में कलरव,
पवन के झोंके में पल्लव,
पुष्पों पर भँवरों का गुंजन,
नभ पर मेघों का गर्जन |
वन में कुलाँचते सारंग,
अम्बर पर अलंकृत सतरंग,
सागर की लहरों की तरंग,
उत्सव में बजता मृदंग |
पन्ने पर लिखा कोई गीत,
कर्णप्रिय मधुरम संगीत,
जीवन का हर वो पल,
जो बीते संग मनमीत ||
नवंबर 17, 2020
मैंने एक ख्वाब देखा
माता की गोद जैसे,
मखमल के नर्म बिस्तर पर,
संगिनी की बांहों में,
निद्रा की गहराइयों में,
मैंने एक ख्वाब देखा |
नीले आज़ाद गगन में,
हल्की बहती पवन में,
पिंजरे को छोड़,
बेड़ी को तोड़,
उड़ता जाऊं क्षितिज की ओर |
श्वेत उजाड़ गिरी से,
ऊबड़-खाबड़ भूमि से,
ध्येय को तलाश,
राह को तराश,
बहता जाऊं सागर की ओर |
मिथ्या मलिन जगत से,
जीवन-मरण गरल से,
निद्रा से जाग,
व्यसनों को त्याग,
बढ़ता जाऊं मंज़िल की ओर ||
सितंबर 08, 2020
नवजीवन
भद्दी नगरीय इमारत पर,
जड़ निष्प्राण ठूँठ पर,
मरु की तपती रेत पर,
गिरी के श्वेत कफ़न पर,
नवजीवन का अंकुर फूटे,
प्रतिकूल पर्यावरण का उपहास कर |
जुलाई 30, 2020
मेरा मन
जैसे बहती वायु में, पत्तों भरी डाली डोले,
जैसे सावन के झूले-हिंडोले, खाएं हिचकोले,
जैसे नन्हा सा इक बालक, जीवन में चंचलता घोले,
मन मेरा उद्विग्न उतना,
यहाँ ना रुके, वहाँ ना टिके,
इत-उत डोले इत-उत डोले ||
जुलाई 17, 2020
वर्षाऋतु
रिमझिम-रिमझिम टिप-टिप-टिप-टिप,
नभ से उतरे जीवन-अमृत,
घुमड़-घुमड़ उमड़-घुमड़ तड़-तड़,
श्यामिल घटा गरजे बढ़चढ़,
शुष्क धरा की मिटी पिपासा,
हरी ओढ़नी रूप नया सा,
पंख फैलाए, नाच दिखाए,
बागों में मोर इठलाए,
सावन के झूले लहराएं,
नभ के पार ये जाना चाहें,
सतरंगी पौढ़ी से उतरकर,
वैकुण्ठ खुद थल पर आए ||
फ़रवरी 12, 2020
खुशी क्या है?
खुशी क्या है?
एक भावना, एक जज़्बात |
सूर्य की किरणों में,
चाँद की शीतलता में,
चिड़ियों की चहचहाट में,
सावन की बरसात में |
किसीकी मुस्कान में छुपी,
किन्ही आँखों में बसी,
कहीं होठों पे खिली,
कभी फूलों से मिली |
मेहनत में कामयाबी में,
गुलामी से आज़ादी में,
हार के बाद जीत में,
जीवन की हर रीत में |
कभी मीठी-मीठी बातों में,
कहीं छुप-छुप के मुलाकातों में,
कभी यारों की बारातों में,
कभी संगी संग रातों में |
पर मेरी खुशी?
तेरा साथ निभाने में,
तेरा हाथ बंटाने में,
बच्चे को खिलाने में,
कभी-कभी गुदगुदाने में,
मेरा जितना भी वक्त है,
तुम दोनों संग बिताने में ||
फ़रवरी 03, 2020
भोर
निशा की अंतिम वेला है,
जगमग-जगमग टिमटिम तारे,
चंद्र लुप्त है, लोप है जीवन,
सुप्त हैं स्वप्नशय्या पर सारे |
सुर्ख रवि की महिमा देखो,
उषा का है हुआ आगमन,
चढ़ते सूर्य की ऊष्मा से,
तिमिर का अब होगा गमन |
पहली किरण के साथ ही,
गूँजे चहुँ ओर मुर्गे की बांग,
कोयल कूके मयूर नाचे,
गिलहरियाँ मारे टहनियों पर छलांग |
गूँज उठे हैं मंदिर में शंख,
पढ़ी जाने मस्ज़िदों में अज़ान,
बजने लगी गिरजाघर की घंटियां,
गुरूद्वारे में गुरुबाणी का गान |
दिनचर निकले स्वप्नलोक से,
निशाचर स्वप्न में समाए,
जीवन जाग्रत होता जगत में,
जब तम पर प्रकाश फ़तेह पाए |
पशु पक्षी सब जीव मनुष्य,
प्रकृति के सारे वरदान,
शीश झुकाकर करें नमन सब,
नभ पर दिनकर शोभायमान ||
जनवरी 20, 2020
माया
धन की क्या आवश्यकता है? धन सिर्फ एक छलावा है | मोह है | माया है | सत्य की परछाईं मात्र है, जो सिर्फ अंधकार में दिखाई पड़ती है | उजाले में इसका कोई अस्तित्व नहीं | धन सब परेशानियों की जड़ है | सब अपराधों की जननी है | सब व्यसनों का आरम्भ है |
कुदरत ने सब जीव बनाए,
पशु पक्षी मत्स्य तरु,
जल भूमि गिरी आकाश,
कंद मूल फल फूल खिलाए,
अंधकार से दिया प्रकाश ||
पर मनुष्य, तूने क्या दिया?
लोभ मोह दंभ अहंकार,
भेदभाव ऊँच-नीच तकरार !
धन को सर्वोपरि बनाया,
धनी निर्धन में भेद कराया,
माया के इस पाश में फंसकर,
कुदरत को तू समझ न पाया ||
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