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जुलाई 04, 2021
फूल चले जाते हैं, काँटे सदा सताते हैं
जून 29, 2021
बचपन
वो बेफिक्री, वो मस्ती और वो नादानी,
वो शेरों की चिड़ियों-परियों की कहानी,
वो सड़कों पर कल-कल बहता बरखा का पानी,
उसमें तैराने को कागज़ की कश्ती बनानी,
वो चुपके से पैसे देती दादी-नानी,
वो आँचल की गहरी निद्रा सुहानी,
वो यारों संग धूप में साईकिल दौड़ानी,
वो बागों में मटरगश्ती और शैतानी,
वो दौर था जब खुशियों की सीमाएं थीं अनजानी,
वो दौर था जब हमने जग की सच्चाईयाँ थीं ना जानी,
ये कैसा एकांत लेकर आई है जवानी,
इससे तो बेहतर थी बचपन की नादानी ||
जून 25, 2021
बुझने से पहले ज्वाला भड़के
सूरज की अलौकिक राहों में,
अंतिम डग से थोड़ा पहले,
जब पग-पग बढ़ता राही भी,
तरु छाया में थोड़ा ठहरे,
ऊष्मा की चुभन सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
दीपक के लघुतम जीवन में,
अंधियारे से थोड़ा पहले,
जब अंतिम चंद बूँदों से,
बाती के रेशे होते सुनहरे,
ज्योति की जगमग सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
ऋतुओं के निरंतर फेरे में,
बसंती बयारों के पहले,
कोहरे के घने कंबल में,
जब दिन में भी दिनकर ना दीखे,
शिशिर की शीतलता सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
किसी मृदु-मनोहारी मंचन में,
पटाक्षेप से थोड़ा पहले,
जब उन्मुक्त निमग्न रंगकर्मी,
रहस्य की परतों को खोले,
दर्शक का रोमांच सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
गंतव्यपथ पर चलते-चलते,
शिखर छूने से थोड़ा पहले,
ध्येय को तलाशती राहों पर,
जब दृढ़-संकल्प भी डोले,
राह की जटिलता सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
जीवन की अनूठी यात्रा के,
समापन से थोड़ा पहले,
जब तन से रूह का बंधन भी,
झीनी सी डोरी से ही झूले,
जीने की चाह सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के ||
जून 18, 2021
मुझको मंज़ूर नहीं
धन के बल पर ग्रह का दोहन,
और अतिरेक मानवों का शोषण,
जन से जन का यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं |
बढ़ना जीवनपथ पर तनहा,
परस्पर बैरी, कटुता, घृणा,
मन से मन का यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं |
इकतरफ़ा चाहत की सनक,
अप्राप्य को पाने की तड़प,
सच से मन का यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं |
कट्टरता का विषपूर्ण भुजंग,
अपने ही मत में मदहोश मलंग,
बुद्धि से नर का यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं |
स्त्री की इच्छाओं का दमन,
पुरुष का नाजायज़ अहम,
नर से नारी का यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं |
अलग ही दुनिया में जीना,
संग होकर संग में ना होना,
तुम से मेरा यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं ||
जून 13, 2021
अधूरा प्यार
लब पर तेरे मेरा नाम नहीं आता है,
जो मैं पुकारूँ फिर भी तेरा पैगाम नहीं आता है,
जग के समक्ष मुझको तू जब-जब बदनाम करती है,
जानता हूँ दिल-ही-दिल में आह भरती है,
दस्तूर दुनिया का बदल सकते नहीं हैं हम,
इक-दूजे संग चाहकर भी जी सकते नहीं हैं हम ||
जून 07, 2021
अल्पविराम,
वक्त के पहियों से भी गतिमान थी ज़िंदगी,
वक्त की भांति ही सतत चलायमान थी ज़िंदगी,
वक्त के पहिये ने रुख ऐसा अपना मोड़ लिया,
रैन के उपरांत सूरज ने निकलना छोड़ दिया,
कष्टों के सैलाब में इंसान मानो बह गया,
जो जहाँ था वो वहीँ पर बस, रह गया,
आस है तम को भेदती फिर घाम हो,
पूर्ण नहीं ये जीवन का बस एक अल्पविराम हो ||
जून 02, 2021
क्षणभंगुर प्रत्येक तमाशा है
जब नभ पर बहता बादल भी,
बरखा बनकर ढह जाता है,
जब दिनभर जलता दिनकर भी,
संध्या होते ढल जाता है,
जब विध्वंसक सैलाब भी,
साहिल तक फिर थम जाता है,
जब दीनहीन कोई रंक भी,
श्रम से राजा बन जाता है,
जब निर्बल नश्वर हर इक जीव,
कालान्तर में मर जाता है |
तो चहुँ ओर तम को पाकर,
तू व्यर्थ क्यों घबराता है ?
और सुख-समृद्धि से तर हो,
दंभी कैसे बन जाता है?
अपने प्रियजन को खोकर,
शोकाकुल क्यों हो जाता है?
सतत अटूट सत्य परिवर्तन,
स्थिरता सिर्फ़ छलावा है,
चिरकालीन यहाँ कुछ भी नहीं,
क्षणभंगुर प्रत्येक तमाशा है ||
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