अप्रैल 20, 2021

हारेंगे नहीं हम

हिंदी कविता Hindi Kavita हारेंगे नहीं हम Haarenge nahin hum

मन में संकल्प ठान कर,


काटों को रस्ता मान कर,


बढ़ते जायेंगे हम,


हारेंगे नहीं हम |



इक पग को पीछे रखकर,


दो पग आगे सरककर,


भागेंगे तेज़ हम,


हारेंगे नहीं हम |



हमराही से बिछड़कर,


अपनों से चाहे लड़कर,


भले अकेले हम,


हारेंगे नहीं हम |



सच का हाथ पकड़कर,


दुश्मन के हाथों मरकर,


फिर-फिर जीयेंगे हम,


हारेंगे नहीं हम |



रस्ते में थोड़ा थककर,


ठोकर खाकर और गिरकर,


फिरसे उठेंगे हम,


हारेंगे नहीं हम |



मंज़िल को अपना बनाकर,


राह के काँटों को मिटाकर,


इक दिन जीतेंगे हम,


तब तक,


हारेंगे नहीं हम ||

अप्रैल 15, 2021

ये इमारत !

हिंदी कविता Hindi Kavita ये इमारत Yeh imaarat

नवयौवन के आँगन में,


सौंदर्य के परचम पर,


अनुपम रंगो को कर धारण,


अभिमान का बन उदाहरण,


अपने ही आकर्षण से अभिभूत,


कैसे गौरवान्वित हो रही है ये इमारत !



अपराह्न की बेला में,


गफलत के सबब से,


रूप-रंग थोड़ा है बाकी,


गुज़रे लम्हों का है साक्षी,


बनकर अपनी बस एक झाँकी,


कैसे जीर्ण-क्षीण हो रही है ये इमारत !



कभी कौतूहल का कारण बनी,


खिदमतगारों से रही पटी,


आज खंडहर हो चली है,


सूखे पत्तों की डली है,


माटी में मिलने को आतुर,


कैसे छिन्न-भिन्न हो रही है ये इमारत !

अप्रैल 02, 2021

भगवान ! कहाँ है तू?

हिंदी कविता Hindi Kavita भगवान कहाँ है तू Bhagwan kahan hai tu

जब निहत्थे निरपराधों को सूली पे चढ़ाया जाता है,


जब सरहद पर जवानों का रुधिर बहाया जाता है,


जब धन की ख़ातिर अपने ही बंगले को जलाया जाता है,


जब तन की ख़ातिर औरत को नज़रों में गिराया जाता है,


जब नन्हे-नन्हे बच्चों को भूखे ही सुलाया जाता है,


जब पत्थर की तेरी मूरत पर कंचन को लुटाया जाता है,


जब सच के राही को हरदम बेहद सताया जाता है,


जब गौ के पावन दूध में पानी को मिलाया जाता है,


जब तेरे नाम पर अक्सर पाखण्ड फैलाया जाता है,


जब तेरे नाम पर हिंदू-मुस्लिम को लड़ाया जाता है,


तब-तब मेरे दिल में बस एक ख्याल आता है,


तू सच में है भी या बस किस्सों में ही बताया जाता है ||

मार्च 29, 2021

होली

हिंदी कविता Hindi Kavita होली Holi

जीवन में सबके घुल जाएँ खुशियों के हज़ारों रंग,


घृणा रोग सब मिट जाएँ, छाए चहुँ ओर उल्लास उमंग |

मार्च 21, 2021

नुक्कड़

हिंदी कविता Hindi Kavita नुक्कड़ Nukkad

गली के नुक्कड़ पर रोज़,


उनके रूबरू आता हूँ |


फासले इतने हैं मगर ,


कुछ भी कह ना पाता हूँ ||

मार्च 14, 2021

मैं हँसना भूल गया

हिंदी कविता Hindi Kavita मैं हँसना भूल गया Main hasna bhool gaya

जब बचपन के मेरे बंधु ने,


चिर विश्वास के तंतु ने,


पीछे से खंजर मार कर,


मेरा भरोसा तोड़ दिया,


मैं हँसना भूल गया |



जब मेरे दफ़्तर में ऊँचे,


पद पर आसीन साहब ने,


मेरे श्रम को अनदेखा कर,


चमचों से नाता जोड़ लिया,


मैं हँसना भूल गया |



जब जन्मों के मेरे साथी ने,


सुख और दुःख के हमराही ने,


दुःख के लम्हों को आता देख,


साथ निभाना छोड़ दिया,


मैं हँसना भूल गया |



जब वर्षों तक सींचे पौधे ने,


उस मेरे अपने बालक ने,


छोटी-छोटी सी बातों पर,


मेरा भर-भर अपमान किया,


मैं हँसना भूल गया |



जिसकी गोदी में रहता था,


जब उस प्यारे से चेहरे ने,


मेरी लाई साड़ी को छोड़,


श्वेत कफ़न ओढ़ लिया,


मैं हँसना भूल गया |



जब मंज़िल की ओर अग्रसर,


पहले से मुश्किल राहों को,


नियति की कुटिल चाल ने,


हर-हर बार मरोड़ दिया,


मैं हँसना भूल गया |

मार्च 11, 2021

क्या देखूँ मैं ?

हिंदी कविता Hindi Kavita क्या देखूँ मैं Kya dekhun main

रिमझिम बरखा के मौसम में,


घोर-घने-गहरे कानन में,


मेरे नैनों के दर्पण में,


छवि अनोखी गोचर होती –


रंगों की कान्ति से उज्जवल,


सरिता की धारा सा अविरल,


डैनों के नर्तन, की संगी


दो भद्दी फूहड़ टहनियाँ !


लहराते पंखों की शोभा,


या बेढब पैरों की डगमग,


क्या देखूँ मैं ?



माटी के विराट गोले पर,


माया की अद्भुत क्रीड़ा में,


मेरे नैनों के दर्पण में,


छवि अनोखी गोचर होती –


बहती बयार की भांति


जीवनधारा, के हमराही


सुख के लम्हों, का साथी


किंचित कष्टों का रेला है !


हर्षित मानव का चेहरा,


या पीड़ित पुरुष अकेला,


क्या देखूँ मैं ?



पल दो पल की इन राहों में,


वैद्यों के विकसित आलय में,


मेरे नैनों के दर्पण में,


छवि अनोखी गोचर होती –


इत गुंजित होती किलकारी,


अंचल में नटखट अवतारी,


उत शोकाकुल क्रन्दनकारी,


बिछोह के गम से मन भारी !


उत्पत्ति का उन्मुक्त उत्सव,


या विलुप्ति का व्याकुल वास्तव,


क्या देखूँ मैं ?



जनमानस के इस जमघट में,


द्वैत के इस द्वंद्व में,


मेरे नैनों के दर्पण में,


छवि अनोखी गोचर होती –


इस ओर करुणा का सागर,


दीनों के कष्टों के तारक,


उस ओर पापों की गागर,


स्वर्णिम मृग रुपी अपकारक !


उपकारी सत के साधक,


या जग में तम के वाहक,


क्या देखूँ मैं ?



मेरे अंत:करण के भीतर,


चित्त की गहराइयों के अंदर,


मन के नैनों के दर्पण में,


छवि अनोखी गोचर होती –


इक सुगंधित मनोहर फुलवारी,


कंटक से डाली है भारी,


काँटों से विचलित ना होकर,


गुल पर जाऊं मैं बलिहारी !


पवन के झोकों में रहकर,


भी निर्भीक जलते दीपक,


को देखूँ मैं !

राम आए हैं